अभ्यास के प्रश्न एवं उत्तर
प्रश्न 1. बालगोबिन भगत गृहस्थ थे। फिर भी उन्हें साधु क्यों कहा जाता था ?
उत्तर- बालगोबिन भगत गृहस्थ थे फिर भी उन्हें लोग साधु इसलिए कहते थे, क्योंकि वे एक सच्चे संत की भाँति आचरण करते थे, जैसे-झूठ न बोलना, सबके साथ खरा व्यवहार करना, किसी से दो-टूक बात करना आदि। वे कबीर को 'साहब' मानते थे और उन्हीं के आदर्शों को अपने आचरण में उतारते थे । शरीर को नश्वर तथा आत्मा को परमात्मा का अंश मानकर बाह्याडंबर से दूर रहते थे तथा नाम के स्मरण में लीन रहते थे ।
प्रश्न 2. भगत ने अपने बेटे के मृत्यु पर अपनी भावनाएँ किस तरह व्यक्त की ?
उत्तर - भगत ने अपने बेटे की मृत्यु पर संसार अधित्य है, मृत्यु शाश्वत है, ऐसा मानकर उन्होंने रोने के बदले भजन गाया और पुत्रवधू को रोने के बदले उत्सव मनाने की सलाह दी। उनका कहना था कि इस मृत्यु के द्वारा आत्मा परमात्मा के पास चली गई है। विरहिणी अपने प्रेमी से जा मिली है । उन दोनों के मिलन से बढ़कर आनंद और कुछ नहीं हो सकता है । इस प्रकार भगत ने शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता का भाव व्यक्त किया है ।
प्रश्न 3. पुत्रवधू द्वारा पुत्र की मुखाग्नि दिलवाना भगत के व्यक्तित्व की किस विशेषता को दर्शाता है ?
उत्तर - पुत्रवधू द्वारा पुत्र की मुखाग्नि दिलवाना भगत के व्यक्तित्व की विशिष्ट विशेषता को दर्शाता है । भगत रूढ़िवादी विचारों के विरोधी थे । उन्होंने सत्य का गहनता से अनुभव किया था । उनका मानना था कि सारी सामाजिक परंपराएँ लोगों ने अपनी सुविधा के लिए कायम किए हैं । पुरुषों ने अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए कुछ ऐसे नियम बना दिए, ताकि उनका दबदबा बना रहे । जबकि भगत स्त्री-पुरुष दोनों को समान मानते थे, क्योंकि जो आत्मा पुरुष में होती है, वही आत्मा स्त्री में भी होती है । इसलिए स्त्री-पुरुष में भेद करना अन्याय है । यही सोचकर उन्होंने पुत्र की मुखाग्नि पुत्रवधू से दिलवाई, जो उनके प्रखर व्यक्तित्व को दर्शाता है ।
पाठ से आगे :
प्रश्न 1. “धर्म का मर्म आचरण में है, अनुष्ठान में नहीं ।"स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- इस कथन के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि धर्मपालन आडम्बरों या अनुष्ठानों के निर्वाह में नहीं, बल्कि आचरण की पवित्रता और शुद्धता में होता है। जब कोई व्यक्ति अपने सिद्धान्त के अनुरूप आचरण करता है, जब कथनी एवं करनी एक जैसी होती है तथा जो अपनी दिनचर्या और निर्णय मनुष्यता के अनुरूप करता है । वह जीवन मूल्य को सही रूप में जान लेता है। धर्म का मर्म यही होता है । अतः जीवन के आदर्श को जीवन में उतारना और आचरण करना धर्म का मर्म है । अहंकाररहित लोककल्याणकारी कार्य ही सच्चा कर्म होता है, किन्तु जिसमें अहंकार का भाव सन्निहित होता है, वह दिखाना मात्र होता है।
प्रश्न 2. बालगोबिन भगत कबीर को 'साहब' मानते थे । इसके क्या-क्या कारण हो सकते हैं ?
उत्तर- बालगोबिन भगत अपना 'साहब' कबीर को मानते थे और उन्हीं के आदर्शों का पालन करने का प्रयास करते थे । कबीर निर्गुण ब्रह्मोपासक थे। उन्होंने आत्मा को परमात्मा का अंश मानकर आत्मा की अमरता स्वीकार की थी। कबीर बाह्यपूजा को व्यर्थ मानते थे। वे मानवता के पोषक थे तथा सारे भेदभावों के विरोधी थे । नाम स्मरण करके कबीर पूज्य हो गए । कबीर की इन्हीं मानवीय विशेषताओं के कारण बालगोबिन भगत उन्हें अपना 'साहब' मानते थे ।
प्रश्न 3. बालगोबिन भगत ने अपने पुत्र की मृत्यु पर भी शोक प्रकट नहीं किया। उनके इस व्यवहार पर अपनी तर्कपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त कीजिए
उत्तर- बालगोबिन भगत ने अपने पुत्र की मृत्यु पर भी शोक इसलिए नहीं प्रकट किया क्योंकि उनका मानना था कि जन्म-मृत्यु प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु होगी ही। इसलिए शोक करना व्यर्थ है। उनका अटल विश्वास था कि आत्मा परमात्मा से विलग होकर आती है और विरहिणी की भाँति अपने प्रेमी परमात्मा से मिलने के लिए बेचैन रहती है 1 मृत्यु के बाद आत्मा परमात्मा से मिलकर एकाकार हो जाती है। साथ ही, यह संसार नश्वर है। | इस नश्वर संसार में सबका अंत होना जब निश्चित ही है तो फिर उसके लिए शोक करना बेकार है । यही सोचकर भगत ने शोक प्रकट नहीं किया
प्रश्न 4. अपने गाँव-जवार में उपस्थित किसी साधु का रेखाचित्र अपने शब्दों में प्रस्तुत कीजिए
उत्तर - मेरे गाँव में लंबे कद के काले कलूटे आदमी थे, जिनका नाम महेश था। उनकी उम्र सत्तर के करीब थी । लंबी दाढ़ी तथा बड़े-बड़े उजले बाल थे। कपड़े बिल्कुल कम पहनते थे । कमर में एक लंगोटी तथा सिर पर एक गमछा रखते थे । जाड़ा के समय एक कंबल ओढ़कर समय गुजार लेते थे । गले में तुलसी की माला तथा ललाट पर नागाधारी चंदन शोभता था, जो तीन रेखा का त्रिशूल जैसे प्रतीत होता था । शरीर से काफी दुबले-पतले थे, जिससे लोग उन्हें सुट्टा बाबा कहकर संबोधित करते थे
प्रश्न 5. अपने परिवेश के आधार पर वर्षा ऋतु का वर्णन कीजिए।
उत्तर - सावन तथा भादो महीने वर्षाऋतु कहलाते हैं । इसी ऋतु में धरती का प्यास बुझती है । वर्षाऋतु का आगमन होते ही प्रकृति में तरुणाई आ जाती है । काले-काले मेघ जब सजधज कर आते हैं तब सारी सृष्टि खिलखिला उठती है। लगता है, जैसे हरी मखमली कालीन पर प्रकृति सुन्दरी लेटी हो । बिजली की पताका और शलाका की माला धारण किए हुए शैल शिखर से डीलडौल वाले मेघ रणमत्त गजेन्द्र की तरह गर्जन करते हैं तो मेढ़क का टर्र-टर्र तथा मृदंग-सा मेघ गर्जन सर्वत्र संगीतोत्सव जैसा वातावरण बना देते हैं । इस प्रकार वर्षाऋतु केवल नयन रंजन ही नहीं करती, वरन् इसके आगमन पर ही कृषि कार्य निर्भर करता है । वर्षा की फुहार में लोग खेतों में धान के पौधे लगाते हैं तथा खुशी के गीत गाकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हैं । यही ऋतु क्षुधापूर्ति का साधन होती है । यदि वर्षा न हो तो संसार में अकाल का ताण्डव मच जाएगा । भूख की ज्वाला में सृष्टि की हर खूबसूरत कली मुरझा जाएगी, जलाशय सूख जाएँगे । अतः संसार की सम्पन्नता या विपन्नता वर्षा ऋतु पर ही निर्भर करती है
प्रश्न 6. "आब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जा रहा है, जगा रहा है ।" व्याख्या कीजिए।
उत्तर- लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी ने बालगोबिन भगत की विशेषता का वर्णन करते हुए यह संदेश दिया है कि जिसने सत्य को नजदीक से परख लिया है, वह सदा जगा रहता है तथा दूसरों को भी जगाने का प्रयत्न करता है । इसीलिए भादो की अंधेरी रात जब संसार सोया रहता है, तब भगत अपने गीत के माध्यम से अज्ञानता के अंधकार में टुबे प्राणियों को सचेत करते हैं कि मोह-माया आदि हमारी बुराइयाँ चोर की भाँति ईश्वरीय प्रेमरूपी गठरी को चुराने में लगी हुई हैं, इसलिए सचेत होना चाहिए। मानव शरीर जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति पाने के लिए मिलता है, इसलिए सांसारिक माया-मोह रूपी बंधन को काटने के लिए सदैव परमात्मा का ध्यान रखना चाहिए।
प्रश्न 7. रूढ़िवादिता से हमें किस प्रकार निपटना चाहिए ? किसी एक रूढ़ीवादी परम्परा का उल्लेख करते हुए बताइए कि आप उससे किस प्रकार निपटेंगे ?
उत्तर- रूढ़ीवादिता का हमें डटकर विरोध करना चाहिए, क्योंकि रूढ़िवादी परम्परा हमें संकीर्ण तथा मिथ्याभिमानी बना देते हैं। यह परम्परा हमें एक-दूसरे से घृणा करना सिखाती है 1 उदाहरणतया जाति प्रथा- जाति प्रथा के कारण छूत अछूत की भावना का जन्म हुआ। उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों का अपवित्र मानकर घृणा करने लगे। फलत: समाज दो वर्गों में बंट गया। दोनों एक-दूसरे के जानी दुश्मन हो गए। यदि इन विचारों से ऊपर उठकर हम यह कहते कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। हम मानव हैं, इसलिए हमारा हर व्यवहार मानव जैसा होना चाहिए। हम समाज में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करके रूढ़ीवादी परम्परा का अंत करने का प्रयास करेंगे। कारण कि एक शिक्षित व्यक्ति ही विवेक से काम लेता है। शिक्षा हमें प्रेम, भाईचारा, बंधुत्व आदि की सीख देती है।
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